Module Eleven – Traditional Vision
परंपरागत चिंतन
Traditional Vision
Native Economics
Module 11.1
परंपरागत चिंतन –1
देशी अर्थशास्त्र
आधुनिक अर्थशास्त्र के अनुसार सभी प्रकार के शास्त्रों का अध्ययन करके ही आर्थिक नीतियाँ बनायी जानी चाहिए। हालाँकि इस बात का कहीं उल्लेख तो नहीं मिलता पर आधुनिक अर्थशास्त्र में संभवतः आध्यात्मिक ग्रंथों का उल्लेख नहीं किया जाता। अध्यात्म उस जीवात्मा का नाम है जो इस देह को धारण करती है और जब उसकी चेतना के साथ मनुष्य काम करता है तो उसकी गतिविधियाँ बहुत पवित्र हो जाती हैं जो अंततः उसकी तथा समाज की आर्थिक गतिविधियों को प्रभावित करती हैं। आधुनिक अर्थशास्त्र उससे अपरिचित लगता है। इस देह के साथ मन, बुद्धि और अहंकार तीनों प्रकृतियाँ स्वाभाविक रूप से अपना काम करती हैं और मनुष्य को अपने अध्यात्म से अपरिचित रखती हैं।
वैसे ही आज के सारे अर्थशास्त्री केवल बाजार, उत्पादन तथा अन्य आर्थिक समीकरणों के अलावा अन्य किसी तथ्य पर विचार व्यक्त नहीं कर पाते। कम से कम प्रचार माध्यमों में चर्चा के लिये आने वाले अनेक अर्थशास्त्रियों की बातों से तो ऐसा ही लगता है। कहीं शेयर बाजार, महंगाई या राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय विषय पर चर्चा होती है तो कथित रूप से अर्थशास्त्री सीमित वैचारिक आधार के साथ अपना विचार व्यक्त करते हैं जिसमें अध्यात्म तो दूर की बात अन्य विषयों से भी वह अनभिज्ञ दिखाई देते हैं। थोड़ी देर के लिये मान भी लिया जाये कि आध्यात्मिक ज्ञान का कोई आर्थिक आधार नहीं है तो भी आज के अनेक अर्थशास्त्री अन्य राजनीतिक, प्रशासनिक तथा प्रबंधकीय तत्वों को अनदेखा कर जाते हैं। यही कारण है कि महंगाई, बेरोजगारी, गरीबी, तथा खाद्य सामग्री की कमी के पीछे जो बाजार को प्रभावित करने वाले नीतिगत, प्राकृतिक, भौगोलिक विषयों के अलावा अन्य कारण हैं उनको नहीं दिखाई देते हैं।
हम यहां आधुनिक अर्थशास्त्र की आलोचना नहीं कर रहे बल्कि भारतीय आध्यात्मिक ग्रंथों में वर्णित उन प्राचीन अर्थशास्त्रीय सामग्रियों को संकलित करने का आग्रह कर रहे हैं जो आज भी प्रासंगिक हैं। कौटिल्य का अर्थशास्त्र तो नाम से ही प्रामाणिक है जबकि चाणक्य नीति में भी आर्थिक विषयों के साथ जीवन मूल्यों की ऐसी व्याख्या है जिससे उसे जीवन का अर्थशास्त्र ही कहा जाना चाहिये। आधुनिक अर्थशास्त्र के अनुसार भी नैतिक शास्त्र का अध्ययन तो किया ही जाना चाहिये जिनको जीवन मूल्य शास्त्र भी कहा जाता है। आज की परिस्थतियों में यही नैतिक मूल्य अगर काम करें तो देश की अर्थव्यवस्था का स्वरूप एक ऐसा आदर्श बन सकता है जिससे अन्य राष्ट्र भी प्रेरणा ले सकते हैं।
आधुनिक अर्थशास्त्री अपने अध्ययनों में भारतीय अर्थव्यवस्था में ‘कुशल प्रबंध का अभाव’ एक बहुत बड़ा दोष मानते हैं। देश के कल्याण और विकास के लिये दावा करने वाले शिखर पुरुष नित्य प्रतिदिन नये नये दावे करने के साथ ही प्रस्ताव प्रस्तुत करते हैं पर इस ‘कुशल प्रबंध के अभाव के दोष का निराकरण करने की बात कोई नहीं करता। भ्रष्टाचार और लालफीताशाही इस दोष का परिणाम है या इसके कारण प्रबंध का अभाव है – यह अलग से चर्चा का विषय है। अलबत्ता लोगों को अपने आध्यात्मिक ज्ञान से परे होने के कारण लोगों में समाज के प्रति जवाबदेही की कमी हमेशा परिलक्षित होती है।
हम चाहें तो जिम्मेदार पद पर बैठे लोगों की कार्यपद्धति को देख सकते हैं। छोटा हो या बड़ा हो यह बहस का विषय नहीं है। इतना तय है कि भ्रष्टाचार, लालफीताशाही और लापरवाही से काम करने की प्रवृत्ति सभी में है। देश में फैला आतंकवाद जितना बाहरी आश्रय से प्रत्यक्ष आसरा ले रहा है तो देश में व्याप्त कुप्रबंध भी उसका कोई छोटा सहयोगी नहीं है। हर बड़ा पदासीन केवल हुक्म का इक्का बनना चाहता है जमीन पर काम करने वालों की उनको परवाह नहीं है। उद्योग और पूंजी ढांचों के स्वामी की दृष्टि में उनके मातहत ऐसे सेवक हैं जिनको केवल हुक्म देकर काम चलाया जा सकता है। दूसरी भाषा में कहें तो अकुशल या शारीरिक श्रम को करना निम्न श्रेणी का काम मान लिया गया है। हमारी श्रीमद्भागवत गीता इस प्रवृत्ति को खारिज करती है। उसके अनुसार अकुशल या शारीरिक श्रम को कभी हेय नहीं समझना चाहिये। संभव है कुछ लोगों को श्रीगीता की यह बात अर्थशास्त्र का विषय न लगे पर नैतिक और राष्ट्रीय आधारों पर विचार करें तो केवल हुक्म देकर जिम्मेदारी पूरी करवाने तथा हुक्म लेकर उस कार्य को करने वालों के बीच जो अहं की दीवार है वह अनेक अवसरों पर साफ़ दिखाई देती है। किसी बड़े हादसे या योजनाओं की विफलता में इसकी अनुभूति की जा सकती है। कुछ लोगों का मानना है कि उनका काम केवल हुक्म देना है और उसके बाद उनकी जिम्मेदारी खत्म हो जाती है मगर वह कार्य को अंजाम देने वाले लोगों की स्थिति तथा मनोदशा का विचार नहीं करते जबकि यह उनका दायित्व होता है। इसके अलावा किसी खास कार्य को संपन्न करने के लिये उसकी तैयारी तथा उसे अन्य जुड़़े मसलों से किस तरह सहायता ली जा सकती है इस पर योजना बनाने के लिये जिस बौद्धिक क्षमता की आवश्यकता है वह शायद ही किसी में दिखाई देती है। सभी लोग केवल इस प्रयास में हैं कि यथास्थिति बनी रहे और इस भाव ने राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक तथा अन्य क्षेत्रों में जड़ता की स्थिति पैदा कर दी है।
इसके अलावा एक बात दूसरी भी है कि केवल आर्थिक विकास ही जीवन की ऊँचाई का प्रमाण नहीं है वरन स्वास्थ्य, शिक्षा तथा वैचारिक विकास भी उसका एक हिस्सा है जिसमें आध्यात्मिक ज्ञान की बहुत जरूरत होती है। इससे परे होकर विकास करने का परिणाम हमारे सामने है। जैसे जैसे लोगों के पास धन की प्रचुरता बढ़ रही है वैसे वैसे उनका नैतिक आधार सिकुड़ता जा रहा है।
ऐसे में लगता है कि कि हम पाश्चात्य समाज पर आधारित अर्थशास्त्र की बजाय अपने ही आध्यात्मिक ग्रंथों में वर्णित सामग्री का अध्ययन करें। वहां के समाजों पर आधारित पाश्चात्य अर्थशास्त्र अब हमारे ही देश के आध्यात्मिक ज्ञान पर अनुसंधान कर रहे हैं। यहां यह भी याद रखने लायक है कि हमारा अध्यात्मिक दर्शन केवल भगवान भक्ति तक ही सीमित नहीं है और न ही वह हमें जीवन देने वाली उस शक्ति के आगे हाथ फैलाकर मांगने की प्रेरणा देता है बल्कि उसमें इस देह के साथ स्वयं के साथ ही परिवार, समाज तथा राष्ट्र के लिये अच्छे और बड़े काम करने की प्रेरणा भी है।
दीपक भारतदीप
http://deepakraj.wordpress.com/2010/01/10/indian-economics-hindi-article/
उपयोगी शब्दार्थ
( shabdkosh.com is a link for an onine H-E and E-H dictionary for additional help)
अर्थशास्त्र m
शास्त्र m आर्थिक नीति f उल्लेख m आध्यात्मिक चेतना f गतिविधि f प्रकृति f उत्पादन m समीकरण m अनभिज्ञ बेरोज़गारी f प्रासंगिक प्रामाणिक नैतिक शास्त्र m परिलक्षित होना कार्यपद्धति f भ्रष्टाचार m लालफीताशाही f आतंकवाद m खारिज करना अनुभूति f यथास्थिति f |
economics
field of study economic policy mention spiritual consciousness activity nature production equation unfamiliar, ignorant unemployment relevant authentic ethics to be visible working style corruption red-tape terrorism to dismiss subtle experience status quo |
Linguistic and Cultural Notes
1. Although more than 50% India’s population claims to know Hindi as opposed to 12% who claim to know English, Hindi faces stiff competition from English. There are two major reasons for this. English undoubtedly has a strong position in professional domains as a language of wider communication globally and locally. Secondly, Hindi faces opposition from some other Indian languages within India. In terms of internal competition, English is a language of equal advantage to speakers of all Indian languages and thus does not allow an advantageous position to Hindi speakers for jobs. Undoubtedly Hindi is growing as a link language in India in informal domains of language use, but English continues to be the preferred language, at least in big cities in formal/prestigious domains of language use. However, Hindi is gradually forging its way ahead especially in entertainment and the media.
2. While Western thought in a discipline like economics is considered important and useful for national development in India, a strong urge for combining it with traditional wisdom is emerging in many circles. Many scholars believe that digging into indigenous thought processes will trigger more creativity in local thinking and also nurture national pride.
Language Development
The two following vocabulary categories are designed for you to enlarge and strengthen your vocabulary. Extensive vocabulary knowledge sharpens all three modes of communication, With the help of dictionaries, the internet and other resources to which you have access, explore the meanings and contextual uses of as many words as you can in order to understand their many connotations.
Semantically Related Words
Here are words with similar meanings but not often with the same connotation.
आर्थिक
प्रकृति उत्पादन बेरोज़गारी कार्यपद्धति आतंकवाद खारिज करना अनुभूति |
माली
कुदरत पैदावार बेकारी कार्यप्रणाली दहशतगर्दी ख़त्म करना, समाप्त करना अनुभव
|
Structurally Related Words (Derivatives)
अर्थ, आर्थिक, अर्थशास्त्र
नीति, नीतिगत, नैतिक
लिख, लेख, उल्लेख, उल्लेखनीय, अभिलेख
अध्यात्म, आध्यात्मिक
चेतन, चेतना, चित्, चित्त
प्रकृति, प्राकृतिक
उत्पाद, उत्पादन, उत्पादक, उत्पादकता
सम, समीकरण
अभिज्ञ, अनभिज्ञ, अनभिज्ञता
रोज़गार, बेरोज़गार, बेरोज़गारी
प्रसंग, प्रासंगिक
प्रमाण, प्रामाणिक
भ्रष्ट, भ्रष्टाचार
आतंक, आतंकवाद, आतंकवादी
अनुभव, अनुभवी, अनुभवहीन, अनुभूत, अनुभूति
Comprehension Questions
1. Which of the following is not stated to be part of spirituality?
a. dignity of labor
b. ethics
c. social issues
d. religious rituals
2. Which of the following does not conform to the text?
a. integration of Indian thoughts in modern economics
b. devotion to God as the basis of economic activity
c. nationalistic thinking as the basis of economic activity
d. study of Indian scriptures as basis of Indian economics
Economic Progress and Social Responsibility
Module 11.2
परंपरागत चिंतन – 2
आर्थिक विकास और सामाजिक दायित्व
हमारे आर्थिक ढाँचे की क्या प्रकृति अथवा व्यवस्था हो, हमें इसे देखना लाज़मी है। हमारी आर्थिक व्यवस्था उस तरह की हो जिसमें हमारी संस्कृति, मानवीय गुण तथा राष्ट्रीय धरोहर पुष्पित एवं पल्लवित हो और उसमें निरंतर विकास होता रहे। हमें अपनी बुराइयाँ तथा कुरीतियाँ त्याग कर ऊँचाइयों पर पहुंचाना ही हमारी व्यवस्था का उद्देश्य है। हमारी धारणा है कि मानवीय गुणों के निरंतर विकास की प्रक्रिया से ही संपूर्णता और भगवान् तक पहुंचा जा सकता है। यदि हमें इस लक्ष्य तक पहुंचना है तो हमारी आर्थिक प्रणाली का ढाँचा तथा विनियम कैसे होना चाहिए,अब जरा इस बात पर विचार करेंगे।
देश के विकास और देशवासियों की दैनिक वस्तुओं की संपूर्ति के लिए और उत्पादन-वृद्धि के लिए आर्थिक प्रणाली का महत्वपूर्ण योगदान है जिसे हर स्थिति में पूरी करने का उद्देश्य लेकर इस व्यवस्था को नए कीर्तिमान स्थापित करने चाहिए।
मूलभूत आवश्यकताओं की संपूर्ति के उपरांत अधिक समृद्धि और विकास के लिए क्या और अधिक उत्पादन किया जाना चाहिए। यह प्रश्न बार-बार उठता है और हम पाते हैं कि पाश्चात्य समाज इस बात को काफी आवश्यक समझता है कि अधिक से अधिक इच्छाएं जीवन में हों और उन इच्छाओं की पूर्ति के लिए हर संभव प्रयास किए जाएं। सामान्यतया होता यही है कि इच्छा के अनुरूप ही व्यक्ति उत्पादन करता है। लेकिन स्थिति अब बदल चुकी है। लोग अब उत्पादन के अनुरूप उसका प्रयोग करते हैं।
मांग के अनुरूप उसका उत्पादन करने के बजाए तो बाजार अनुसंधान के जरिए मांग की सृजन के लिए प्रयास किया जाता हैं। पहले उत्पादन माँग के अनुसार होता था जबकि आज माँग उत्पादन के अनुसार है। यही पाश्चात्य आर्थिक आंदोलन की प्रमुख पहचान है । चाय का ही हम उदाहरण लें। चाय का उत्पादन इसलिए है क्योंकि लोग चाहते हैं और उसे मांगते हैं। अब उसका उत्पादन बृहत स्तर पर है और लोगों के वह मुँह लग चुकी है और सामान्य उपयोग की वस्तु बन गई है। इतना ही नहीं आज वह हमारे जीवन का अंग बन गयी है। इसी तरह वनस्पति घी का उदाहरण लें तो हम पाएंगे कि कोई भी इसे प्रयोग में नहीं लाना चाहता था। पहले इसका उत्पादन हुआ और फिर हमें बताया गया कि इसका प्रयोग करें। यदि उत्पादित माल का उपयोग नहीं किया गया तो स्वाभाविक रूप से उसमें संकुचन हुआ।
यह आवश्यक है कि प्राकृतिक संसाधनों का हम उतना ही दोहन करें जिसके लिए वे सक्षम हों। फलों की प्राप्ति के लिए पेड़ों को तहस-नहस नहीं किया जाता क्योंकि इससे उन पर असर तो होगा ही। लेकिन अमेरिका में अधिक उत्पादन के लिए जिन रसायनों का प्रयोग वहाँ की जमीन पर हुआ था, वह आज उपज-योग्य नहीं रही। लाखों एकड़ ऐसी भूमि आज अमेरिका में है जिस पर खेती नहीं हो सकती। यह विनाश कब तक चलेगा?
इस तरह का मानवीय दृष्टिकोण आर्थिक प्रणाली को प्रेरित करता है जिससे हमारे चिंतन में आर्थिक प्रश्न नए रूप ले लेंगे। पश्चिमी अर्थशास्त्र में चाहे वह पूंजीवादी व्यवस्था हो अथवा सामाजिक, मूल्य की स्थिति अत्यंत महत्वपूर्ण है। सभी आर्थिक विषयवस्तुओं का केन्द्रबिन्दु मूल्य पर आधारित है। मूल्य का विश्लेषण अर्थशास्त्रियों के दृष्टिकोण से काफी महत्वपूर्ण है। लेकिन सामाजिक दार्शनिक जो मूल्य पर ही आधारित हो उसे अपूर्ण, अमानवीय तथा कुछ हद तक तथ्यहीन मानते हैं। उदाहरण के लिए एक नारा जो हमेशा ही प्रयोग में लाया जाता रहा है, वह है कि ”प्रत्येक व्यक्ति को अपने लिए रोटी कमानी है।” सामान्यतया कम्युनिस्ट इस नारे का प्रयोग करते हैं लेकिन पूंजीवादी भी इसे अस्वीकार नहीं करते। यदि उनके बीच में कोई मतभेद है, वह केवल इतना ही है कि कोई कितना कमाता है और कितना जमा करता है। पूंजीवादी यह मानते हैं कि पूंजी और उद्यम दोनों ही पूंजीगत व्यवस्था के अनिवार्य घटक हैं और यदि ये लाभ के प्रमुख अंश प्राप्त करते हैं तो वे इसे इनकी योग्यता का मापदण्ड मानते हैं। दूसरी ओर कम्युनिस्ट केवल श्रम को ही उत्पादन का प्रमुख उपादान मानते हैं। इन दोनों में से कोई भी विचार उपयुक्त नहीं है। वास्तविक रूप से हमारा नारा यह होना चाहिए कि जो कमायेगा वह खिलाएगा और हर एक के पास खाने के लिए पर्याप्त होगा। भोजन की प्राप्ति तो जन्मसिद्ध अधिकार है। कमाने की योग्यता शिक्षा और प्रशिक्षण है। समाज में जो कमाता नहीं है उसे भी भोजन का अधिकार है। बच्चे और बूढ़े, बीमार तथा अपाहिज सभी कमाते तो नहीं है लेकिन खाने के अधिकारी हैं। आर्थिक प्रणाली इस कार्य के लिए मुहैया करवाई जानी चाहिए। विज्ञान के रूप में अर्थशास्त्र इस उत्तरदायित्व के लिए उत्तरदायी नहीं है। एक आदमी केवल रोटी के लिए ही नहीं कमाता, वह अपने उत्तरदायित्व के निर्वाह के लिए भी कमाता है। अन्यथा जिनके पास खाने की व्यवस्था है वे काम क्यों करेंगे?
किसी भी आर्थिक प्रणाली को व्यक्ति की आवश्यक आवश्यकताओं को पूर्ण करने की व्यवस्था करनी ही चाहिए। रोटी, कपड़ा और मकान जैसी आवश्यकताएँ हर व्यक्ति के लिए आवश्यक हैं। समाज के दायित्व को निर्वाह करने के लिए शिक्षा भी बेहद आवश्यक है। अंत में यदि कोई व्यक्ति बीमार पड़ता है तो उसके विधिवत् इलाज तथा देखरेख का दायित्व समाज का है। यदि कोई सरकार इन न्यूनतम आवश्यकताओं को पूर्ण करती है तो उसे हम धर्म का राज कहेंगे अन्यथा उसे अधर्म राज्य कहा जाएगा। राजा दिलीप का वर्णन करते हुए कालिदास ने रघुवंश में कहा है कि वे ”अपनी प्रजाजनों की देखरेख एक पिता की तरह करते थे और उनकी रक्षा और शिक्षा के पूरे दायित्व का निर्वाह करते थे”। राजा भरत जिनके नाम से इस देश का नाम भारत पड़ा था, वे भी अपनी प्रजा की ”देखरेख, लालन-पालन और उनकी रक्षा पिता की तरह करते थे”। यह उन्हीं का देश भारत है। यदि आज उनके इस देश में प्रजा की देखरेख और रक्षण जो प्रजाजनों के लिए अत्यन्त आवश्यक है, नहीं किया जाता तो भारत का कोई अर्थ नहीं रह जाता।
पंडित दीनदयाल उपाध्याय
उपयोगी शब्दार्थ
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लाज़मी
मानवीय गुण m राष्ट्रीय धरोहर f पुष्पित पल्लवित कुरीति f धारणा f संपूर्णता f विनियम m दैनिक संपूर्ति f आर्थिक प्रणाली f कीर्तिमान m वनस्पति घी m संकुचन m प्राकृतिक संसाधन m दोहन m सक्षम रसायन m उपज-योग्य मानवीय दृष्टिकोण m पूंजीवादी व्यवस्था f विषयवस्तु केन्द्रबिन्दु अमानवीय तथ्यहीन सामान्यतया घटक मापदंड उपादान उपयुक्त विज्ञान अर्थशास्त्र उत्तरदायित्व उत्तरदायी निर्वाह अन्यथा दायित्व विधिवत् न्यूनतम |
compulsory
human quality (ies) national heritage flowered blossomed bad manner idea, concept completeness, totality regulation daily supply economic system record vegetable ghee/oil constriction natural resource milking capable chemical befitting for a crop/production human view point capitalist system subject matter focal point inhuman devoid of facts ordinarily factor scale material cause, raw material appropriate science economics responsibility responsible subsistence, maintenance otherwise responsibility according to rules minimum |
Linguistic and Cultural Notes
1. In terms of language use, Hindi definitely surpasses English in informal oral discussions and in overall readership of newspapers. Its use is also growing in some formal domains such as business newspapers and business communications in smaller cities where English is not as dominant as it is in big cities.
2. Pandit Deendayal Upadhyay was a political activist known for his philosophical ideas in economics. He was a founding member and leader of the Jan Sangh, a forerunner of the Bhartiya Janata Party.
Language Development
The two following vocabulary categories are designed for you to enlarge and strengthen your vocabulary. Extensive vocabulary knowledge sharpens all three modes of communication, With the help of dictionaries, the internet and other resources to which you have access, explore the meanings and contextual uses of as many words as you can in order to understand their many connotations.
Semantically Related Words
Here are words with similar meanings but not often with the same connotation.
लाज़मी
धरोहर विनियम दैनिक संपूर्ति कीर्तिमान सक्षम सामान्यतया उपयुक्त उत्तरदायित्व उत्तरदायी |
अनिवार्य
विरासत अधिनियम रोज़ाना, हर रोज़, प्रतिदिन आपूर्ति रिकार्ड समर्थ सामान्यतः, आम तौर पर उचित दायित्व, ज़िम्मेवारी, ज़िम्मेदारी ज़िम्मेवार, ज़िम्मेदार |
Structurally Related Words (Derivatives)
मानव, मानवीय, मानवता, अमानवीय
राष्ट्र, राष्ट्रीय, राष्ट्रीयता, अंतर्राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीयता अंतरराष्ट्रीय, बहुराष्ट्रीय, अन्तरराष्ट्रीयता
पुष्प, पुष्पित
पल्लव, पल्लवित
रीति, कुरीति
धारणा, अवधारणा
पूर्ण, पूर्णता, संपूर्ण, संपूर्णता
नियम, नियमित, नियामक, अधिनियम, विनियम
दिन, प्रतिदिन, दिन-ब-दिन, दिन प्रतिदिन, दिनोंदिन, दैनिक
पूर्ति, आपूर्ति, संपूर्ति
संकोच, संकुचन
रस, रसिक, रसायन, रसायनिक, रासायनिक
विधि, विधिवत्, वैध, अवैध
Comprehension Questions
1. What is the theme of this article?
a. spirituality as the basis of economics
b. nationalism in the center of all thinking
c. Indian thinking based on Indian scriptures
d. fusion between Indian and Western thought
2. What is author’s tone about Western thinking in the area of economics?
a. complimentary
b. disapproving
c. hard-hearted
d. mocking
Meaning of Marketing
Module 11.3
परंपरागत चिंतन – 3
बाज़ारवाद का मतलब
पहले हमें धर्म नियंत्रित करता था । उस धर्म में भले ही पांखड, तर्करहित-पाबंदियाँ, अतीन्द्रिय चेतना और मूढ़ता भी थीं किन्तु कुछ मूल्य, कुछ भय और कुछ परलोकीय शुचिता की आंतरिक आकांक्षाएं भी थीं । शायद इसलिए मन और मनीषा दोनों की ज़मीन को आत्मा का ठोस आसमान घनी छाँह दिया करता था । धर्मच्युतिकरण के साथ-साथ आत्मा की छाँहें छिजती चली गयीं और प्रचंड ग्रीष्मता और उष्णता का मारा देह का सांड चारों तरफ़ हुंकड़ने लगा । पश्चिमी दर्शन की समीपता, वैज्ञानिक समझ और आधुनिकता के दबाब से देह की ख़ुराक़ को जैसे जीवन का ध्येय माना जाने लगा । इसमें समूची 20 वीं सदी को अपने घेरे में लेने वाली मार्क्सवादी सोच की व्यापक अनुरक्ति भी सम्मिलित है, जहाँ केवल वर्तमान की सुचिंताएँ तो हैं किन्तु वहाँ भविष्य का सौंदर्य़ बिलकुल नदारद है जिसके भय से कम-से-कम भारतीय जीवन शैली स्वयं आत्मशोधित और आत्मनिंयत्रित हुआ करती थी । प्रकारांतर से कह सकते हैं कि अर्थ, काम, धर्म और मोक्ष चारों के प्रति सम्यक विश्वास ही भारतीय पुरुषार्थ को नियमित और नियंत्रित किया करता था । तब तक, जब तक हम आत्मा के दीये से रोशनी लेते रहे, देह यानी अर्थ और काम, धर्म और मोक्ष के साथ बैंलेसिंग पोजिशन में थे किन्तु जैसे ही पुरुषार्थ के अन्य घटकों को कुचलते हुए अर्थ और काम केंद्र में आ गये जीवन का सारा भूगोल, सारी दिशाएँ, सारे कोण गड्डमड्ड हो गये । ज़ाहिर है जीवन और समाज को अर्थ का अधिनायकवादी शास्त्र और सच्चे अर्थों में शस्त्र चारों तरफ़ से घेरने लगा । इस अधिनायकत्व के लक्ष्यों की पूर्ति में उत्पादन, उपभोग, विनिमय और वितरण की प्रक्रियायें साथ-साथ न चलकर तितर-बितर कर दी गयीं। ऐसे में इन कुलक्ष्यों का सर्वोच्च साधन बाज़ार ही बना ।
जी हाँ, भारत के प्राचीन काल से लेकर बीसवीं सदी के आठवें दशक तक का वही बाज़ार जिसका मतलब साप्ताहिक हाट, मेला, चौक-चौराहों में संचालित दुकानदारी तक सीमित रहा । यानी दिन-प्रतिदिन की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए अंतराल पर लोगों की ख़रीदारी और बिक्रय । क्रय-बिक्रय का यह जो अंतराल था, वह भी अन्य पुरुषार्थों के लिए सम्मानजनक स्पेस देता था । तब बाज़ार कुरूप नहीं था । वह ऐसी जगह था जहाँ कबीर जैसा दार्शनिक भी खड़े होकर समाज का आह्वान कर सकता था । आज बाज़ार के ख़ूनी पंजों के निशान जीवन में सर्वत्र देखे पहचाने जा सकते हैं । वहाँ मनुष्य के हर कर्म में बाज़ार का हस्तक्षेप है, आंतक है ।
यह बाज़ार तब सिर चढ़कर बोलने लगा जब बीसवीं सदी के अंतिम दो दशकों से भूमंडलीकरण की वैश्विक प्रक्रिया शुरू हुई, जो निरंतर सुरसा की तरह मुँह विस्तारित करती जा रही है, जिसमें भूमंडलीकरण का असली निहितार्थ भूमंडीकरण है। यह एक ऐसा षडयंत्र है, जहाँ बाज़ार के विश्वव्यापीकरण और विश्व के बाज़ारीकरण के अलावा कुछ भी ऐसा नहीं हो रहा है जिस पर मानवजाति विश्वास जता सके । इस मंडी में सब कुछ बिकाऊ है । यहाँ तक कि तन-मन और संपूर्ण जीवन भी । आज के बाज़ार की पहुँच और उसके बरक्स मानवीय विडम्बनाओं की चरम सीमा साफ़-साफ़ देखी जा सकती है। अब बाज़ार का विस्तार घर के आंगन और बेडरुम तक हो गया है जिसमें इलेक्ट्रॉनिक संचार माध्यमों का काफ़ी योगदान है । अब बाज़ार केन्द्र में है और मनुष्य और समाज परिधि में हैं ।
आज का भारतीय समाज उत्पादक कम और उपभोक्ता ज़्यादा हो गया है । विश्व व्यापार संगठन के निर्णयों को मानें तो किसानों को अनुदान नहीं दिया जाना चाहिए क्योंकि इससे बाज़ार विद्रूप होता है यानी स्वस्थ प्रतिस्पर्धा नहीं होती । किन्तु ठीक दूसरी ओर टाटा और सलीम समूह जैसे औद्यौगिक घरानों की सुविधा एवं मुनाफ़े के लिए पश्चिम बंगाल में फूलों की ‘सेज’ ( स्पेशल इकोनॉमिक जोन) सजाई जाती है, जिसके लिए छोटे-छोटे किसानों की पुश्तैनी ज़मीन औने-पौने दाम देकर ‘लोक उद्देश्य’ के नाम पर भू अर्जन अधिनियम (1894) के तहत ख़रीद नहीं हड़प ली जाती है । किसानों की सहमति के बिना । बाज़ार असहमत लोगों को अपने रास्ते से हटा देता है । उसे सिर्फ़ सहमति चाहिए । जब सिंगूर और नन्दीग्राम के भोले-भाले किसान इसका विरोध करते हैं तो उन्हें बन्दूक की गोलियाँ और लाठियाँ खानी पड़ती हैं । (चौदह लोग नंदीग्राम में मारे गये) इसी प्रकार दादरी (उ.प्र.) के किसानों से रिलायन्स समूह के लिए राज्य सरकार द्वारा जबर्दस्ती ज़मीन छीन ली जाती है ।
आज की वास्तविकता तो यही है कि विकसित देशों का पिछलग्गू बनते हुए और अपनी स्वस्थ और संपुष्ट मिश्रित अर्थव्यवस्था से पिंड छुड़ाते हुए ग्रामों का भारत भी ‘उपभोक्ता समाज’ बन गया है । उपभोक्ता समाज की ख़ासियत यह है कि यह उत्पादन की जगह उपभोग को ज़्यादा महत्व देता है । उपभोग का आधिक्य जंगल की प्रवृत्ति है जहाँ कभी भी किसी की हत्या करने से बलशाली पशु चूकना नहीं चाहता।
पिछले दो दशकों में भारत जैसे विकासशील देशों में भी टी.वी., सिनेमा, अखबार, पैम्फलेट, वीडियो आदि संचार माध्यमों द्वारा प्रचारित-प्रसारित विज्ञापनों से ख़रीदारी की प्रवृत्ति बढ़ी है । लोग जो कुछ देखते-सुनते या पढ़ते हैं, उन्हें ख़रीदने का मन धीरे-धीरे बना लेते हैं । यह बाज़ार का मनोवैज्ञानिक और धीमा ज़हर है जिसे बाँटकर मनुष्य को सिर्फ़ क्रेता बनाया जा रहा है । इसके पीछे निजी आय में हो रही वृद्धि को भी शुमार कर सकते हैं – भारत में मध्यम वर्ग का दायरा काफ़ी बढ़ा है, लगभग 35 करोड़ तक । दूसरा कारण अधिक से अधिक चीज़ें खाने या रखने की प्रवृत्ति भी बढ़ी है और लोग विलासिता की सुविधाओं के आदी हो गये हैं। जीवन का लक्ष्य जैसे एकत्रीकरण हो गया हो । बाज़ार ने परिग्रहवादी भारतीय मन को संग्रहवाद का शिकार बनाने मे कोई कोताही नहीं की है । तीसरा कारण विभिन्न बैंकों तथा अन्य वित्तीय संस्थाओं द्वारा ज़्यादा सरलता उदारता से ऋण उपलब्ध कराने की नीति भी है । सो यदि ज़्यादा आय न भी हो तो अपनी या घर के अन्य सदस्यों की इच्छा की पूर्ति के लिए लोग ऋण लेने में नहीं चूकते। किन्तु निम्न मध्यमवर्ग की हालत इसके ठीक विपरीत है । उसके लिए तो ठीक से राशनिंग भी उपलब्ध नहीं है । कई राज्यों में करोड़ों जनता को प्रतिमाह 2 या 3 रूपये की दर से 35 किलो चावल देने की योजना का एक निहितार्थ यह भी है कि उनकी क्रय शक्ति जस के तस है । वे ठीक से दो जून की रोटी भी जुटा पाने में असमर्थ हैं । वह भी आज़ादी के कई दशकों बाद ।
उपभोक्तावादी संस्कृति में अधिक मात्रा में संग्रहण, भव्यता (शान-शौकत) दुर्लभता (दुर्लभ वस्तुओं को प्राप्त करने की आकांक्षा), वृहदाकार का सौन्दर्य, दिखावापन, प्रतिद्वन्द्विता, झूठी हैसियत और प्रतिष्ठा जैसी विशेषताएँ खोखली हैं । यहाँ ‘ख़ुशनुमा अहसास’ (बिना बेहतर हुए बेहतरी का अहसास-फील गुड़ः की प्रबलता होती है, जो दुचित्तेपन और और द्विखंडित व्यक्तित्व का प्रतीक है, जो नये ज़माने की प्रतिस्पर्धा, मुक्त बाज़ारवाद, लालच की मानसिकता से पैदा होती है, जिससे पर्यावरणीय ख़तरे पैदा हो रहे हैं । दुनिया के 43 देशों ने उपभोक्तावादी संस्कृति और तद्जनित पर्यावरणीय ख़तरों को महसूस किया है और आत्मनिर्णय लिया है कि वे जी.एम. बीजों और उत्पादों का उपयोग नहीं करेंगे । क्योंकि वैश्वीकरण के तीनों मूल सिद्धान्त (जेम्स गालब्रेथ के शब्दों में) धराशायी हो चुके हैः सभी सफलताएँ वैश्विक होती हैः सभी असफलताएँ राष्ट्रीय होती हैः बाज़ार को तो दोष नहीं दिया जा सकता।
निजीकरण वैश्वीकरण की सह-प्रक्रिया है, जिसमें प्राकृतिक संसाधनों, सिंचाई संसाधनों तथा उद्योगों का निजी स्वामित्व आदि शामिल है । इसमें सामूहिक सहभागिता (जन सामान्य की ) और सार्वजनिक दायित्व (सरकार का) का लोप हो जाता है । निजीकरण और वैश्वीकरण के अद्यतन शिल्प को देखें तो यह साफ़-साफ़ दिखाई देता है कि दोनों एक दूसरे को संबोधित और संवर्धित करते हैं । ज़ाहिर है यहाँ जन सामान्य की आकांक्षाओं और स्वप्नों की चिंताओं के लिए कोई जगह नहीं । ऐसे में निजीकरण औऱ वैश्वीकरण सहअस्तित्व या सहकारिता का विरुद्धार्थी बन जाते हैं । इसलिए अपभोक्तावादी संस्कृति में न्यूनतम आवश्यकता के ऊपर असीमित इच्छाएँ हावी होने से किसी को कभी संतोष नहीं होता- गोधन, गजधन, बाजिधन और रतन-धन को प्राथमिकता दी जाती है, सन्तोष-धन को नहीं । इस सन्दर्भ में महात्मा गाँधी की यह उक्ति काफ़ी प्रासंगिक हैः ‘धरती के पास प्रत्येक व्यक्ति की जरूरत पूरा करने वाली हर चीज़ मौजूद है, मगर किसी के लालच को वह पूरा नहीं कर सकती।’
– जयप्रकाश मानस
उपयोगी शब्दार्थ
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नियंत्रित करना
पाबंदी f अतीन्द्रिय चेतना f मूढता f शुचिता f मनीषा f धर्मच्युतिकरण आत्म-शोधित आत्म-नियंत्रित अधिनायकवादी शास्त्र m अधिनायकत्व m अंतराल m हस्तक्षेप m भूमण्डलीकरण m वैश्विक प्रक्रिया f निहितार्थ m के बरक्स विडम्बना f परिधि f अनुदान m प्रतिस्पर्धा f अधिनियम m पिछलग्गू m/f उपभोक्ता m/f मनोवैज्ञानिक परिग्रहवादी मध्यमवर्ग m निजीकरण m सहअस्तित्व m |
to control
restriction meta-sensual consciousness stupidity purity, honesty wisdom deviating from the path of righteousness self-purified self-controlled dictatorial field of study dictatorship interval intervention globalization global process implication, implied meaning in contrast to, against irony circumference grant (money), funding competition act, statute blind follower consumer psychological acquisitionist middle class privatization co-existence |
Linguistic and Cultural Notes
1. विक्रय and बिक्रय are regional variants. The standard form as found in Hindi dictionaries is the former one. The sound ब replaces व in many words, more in speech than in writing, as we move to the eastern part of the Hindi belt, especially in eastern Uttar Pradesh, Bihar and also in the Bengali region.
2. Classical terms like पुरुषार्थ, धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष need to be understood in their intended sense. According to classical Hindu thought, there are four goals (पुरुषार्थ) of human life – righteousness (धर्म), material prosperity (अर्थ), desires (काम), and spiritual liberation (मोक्ष).
3. Consumerism is the new cultural order of the day where products are marketed in effective ways to attract customers. In terms of economics, consumerism is closely connected to the local standard of living and the GDP of the nation. Consumerism implies a demand for goods resulting from the mass production of goods and the ensuing marketing strategies. The Indian middle class became significant in size after the liberalization policies in 1991 and that’s where increasing consumerism has been visible in recent years.
Language Development
The two following vocabulary categories are designed for you to enlarge and strengthen your vocabulary. Extensive vocabulary knowledge sharpens all three modes of communication, With the help of dictionaries, the internet and other resources to which you have access, explore the meanings and contextual uses of as many words as you can in order to understand their many connotations.
Semantically Related Words
Here are words with similar meanings but not often with the same connotation.
नियंत्रित करना
पाबंदी मूढता शुचिता मनीषा अधिनायकवादी हस्तक्षेप भूमण्डलीकरण प्रतिस्पर्धा |
काबू करना
रोक मूर्खता सफ़ाई, ईमानदारी इच्छा तानाशाही दख़लन्दाज़ी वैश्वीकरण स्पर्धा, प्रतिद्वन्द्विता, प्रतियोगिता, मुकाबला |
नियंत्रित करना काबू करना
पाबंदी रोक
मूढता मूर्खता
शुचिता सफ़ाई, ईमानदारी
मनीषा इच्छा
अधिनायकवादी तानाशाही
हस्तक्षेप दख़लन्दाज़ी
भूमण्डलीकरण वैश्वीकरण
प्रतिस्पर्धा स्पर्धा, प्रतिद्वन्द्विता, प्रतियोगिता, मुकाबला
Structurally Related Words (Derivatives)
नियंत्रण, नियंत्रित, नियंत्रक
पाबंद, पाबंदी
इन्द्रिय, अतीन्द्रिय
चेतन, चेतना, चित्, चित्त
मूढ, मूढता
शुचि, शुचिता
नायक, अधिनायक, अधिनायकवादी, अधिनायकत्व
भूमण्डल, भूमण्डलीकरण
निहित, निहितार्थ
दान, अनुदान, आदान, प्रदान, आदान-प्रदान
स्पर्धा, प्रतिस्पर्धा , प्रतिस्पर्धात्मक
पीछे, पिछलग्गू
मनोविज्ञान, मनोवैज्ञानिक
ग्रहण, अधिग्रहण, परिग्रहण, परिग्रह, अपरिग्रह, परिग्रहवादी
निज, निजी, निजीकरण
अस्तित्व, सहअस्तित्व
Comprehension Questions
1.What is at the center stage of this author’s thinking?
a. Globalization is eroding all local traditions and settings.
b. Economics without ethics is the root of unhappiness.
c. Consumerism is happiness of humans.
d. Unlimited desires are corroding a balanced view of life.
2. What would be an ideal state according to the author?
a. When religion is combined with our economic thinking.
b. When India’s traditional thinking is combined with global thinking.
c. When the local environment is given its due over globalization.
d. When collective happiness is favored over individual happiness.
Economic Media of Hindi
Module 11.4
परंपरागत चिंतन – 4
हिंदी की आर्थिक पत्रकारिता
वैश्वीकरण के इस दौर में ‘माया’ अब ‘महाठगिनी’ नहीं रही। ऐसे में पूंजी, बाजार, व्यवसाय, शेयर मार्केट से लेकर कारपोरेट की विस्तार पाती दुनिया अब मीडिया में बड़ी जगह घेर रही है। हिन्दी के अखबार और न्यूज चैनल भी इन चीजों की अहमियत समझ रहे हैं। दुनिया के एक बड़े बाजार को जीतने की जंग में आर्थिक पत्रकारिता एक साधन बनी है। इससे जहां बाजार में उत्साह है वहीं उसके उपभोक्ता वर्ग में भी चेतना का संचार हुआ है। आम भारतीय में आर्थिक गतिविधियों के प्रति उदासीनता के भाव बहुत गहरे रहे हैं। देश के गुजराती समाज को इस दृष्टि से अलग करके देखा जा सकता है क्योंकि वे आर्थिक संदर्भों में गहरी रुचि लेते हैं। बाकी समुदाय अपनी व्यावसायिक गतिविधियों के बावजूद परंपरागत व्यवसायों में ही रहे हैं। ये चीजें अब बदलती दिख रही हैं। शायद यही कारण है कि आर्थिक संदर्भों पर सामग्री के लिए हम आज भी आर्थिक मुद्दों तथा बाजार की सूचनाओं को बहुत महत्व देते हैं। हिन्दी क्षेत्र में यह क्रांति अब शुरू हो गयी है।
‘अमर उजाला’ समूह के ‘कारोबार’ तथा ‘नई दुनिया’ समूह के ‘भाव–ताव’ जैसे समाचार पत्रों की अकाल मृत्यु ने हिन्दी में आर्थिक पत्रों के भविष्य पर ग्रहण लगा दिए थे किंतु अब समय बदल रहा है इकॉनॉमिक टाइम्स, बिज़नेस स्टैंडर्ड और बिज़नेस भास्कर का हिंदी में प्रकाशन यह साबित करता हैं कि हिंदी क्षेत्र में आर्थिक पत्रकारिता का एक नया युग प्रारंभ हो रहा है। जाहिर है हमारी निर्भरता अंग्रेजी के इकानामिक टाइम्स, बिजनेस लाइन, बिजनेस स्टैंडर्ड, फाइनेंसियल एक्सप्रेस जैसे अखबारों तथा बड़े पत्र समूहों द्वारा निकाली जा रही बिजनेस टुडे और मनी जैसे पत्रिकाओं पर उतनी नहीं रहेगी। देखें तो हिन्दी समाज आरंभ से ही अपने आर्थिक संदर्भों की पाठकीयता के मामले में अंग्रेजी पत्रों पर ही निर्भर रहा है, पर नया समय अच्छी खबरें लेकर आ रहा है।
भारत में आर्थिक पत्रकारिता का आरंभ ब्रिटिश मैनेजिंग एजेंसियों की प्रेरणा से ही हुआ है। देश में पहली आर्थिक संदर्भों की पत्रिका ‘कैपिटल’ नाम से 1886 में कोलकाता से निकली। इसके बाद लगभग 50 वर्षों के अंतराल में मुंबई तेजी से आर्थिक गतिविधियों का केन्द्र बना। इस दौर में मुंबई से निकले ‘कॉमर्स’ साप्ताहिक ने अपनी खास पहचान बनाई। इस पत्रिका का 1910 में प्रकाशन कोलकाता से ही प्रारंभ हुआ। 1928 में कोलकाता से ‘इंडियन फाइनेंस’ का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। दिल्ली से 1943 में इस्टर्न इकॉनॉमिक्स और फाइनेंसियल एक्सप्रेस का प्रकाशन हुआ। आजादी के बाद भी गुजराती भाषा को छोड़कर हिंदी सहित अन्य भारतीय भाषाओं में आर्थिक पत्रकारिता के क्षेत्र में कोई बहुत महत्वपूर्ण प्रयास नहीं हुए। गुजराती में ‘व्यापार’ का प्रकाशन 1949 में मासिक पत्रिका के रूप में प्रारंभ हुआ। आज यह पत्र प्रादेशिक भाषा में छपने के बावजूद देश के आर्थिक जगत की समग्र गतिविधियों का आइना बना हुआ है। फिलहाल इसका संस्करण हिन्दी में भी एक साप्ताहिक के रूप में प्रकाशित हो रहा है। इसके साथ ही सभी प्रमुख चैनलों में अनिवार्यतः बिज़नेस की खबरें तथा कार्यक्रम प्रस्तुत किए जा रहे हैं। इतना ही नहीं लगभग दर्जन भर बिज़नेस चैनलों की शुरुआत को भी एक नई नजर से देखा जाना चाहिए। ज़ी बिजनेस, सीएनबीसी आवाज़, एनडीटीवी प्रॉफ़िट आदि।
वैश्वीकरण और बहुराष्ट्रीय कपनियों के आगमन से पैदा हुई स्पर्धा ने इस क्षेत्र में क्रांति सी ला दी है। बड़े महानगरों में बिज़नेस रिपोर्टर को बहुत सम्मान से देखा जाता है। हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं में वेबसाइट पर काफ़ी सामग्री उपलब्ध है। अंग्रेज़ी में तमाम समृद्ध वेबसाइट्स हैं जिनमें सिर्फ़ आर्थिक विषयों की इफरात सामग्री उपलब्ध है। हिन्दी क्षेत्र में आर्थिक पत्रकारिता की दयनीय स्थिति को देखकर ही वरिष्ठ पत्रकार वासुदेव झा ने कभी कहा था कि हिन्दी पत्रों के आर्थिक पृष्ठ ‘हरिजन वर्गीय पृष्ठ हैं। उनके शब्दों में – ‘भारतीय पत्रों के इस हरिजन वर्गीय पृष्ठ को अभी लंबा सफर तय करना है। हमारे बड़े बड़े पत्र वाणिज्य-समाचारों के बारे में एक प्रकार की हीन भावना से ग्रस्त दिखते हैं। अंग्रेजी पत्रों में पिछलग्गू होने के कारण हिन्दी पत्रों की मानसिकता दयनीय है। श्री झा की पीड़ा को समझा जा सकता है, लेकिन हालात अब बदल रहे हैं। बिज़नेस रिपोर्टर तथा बिज़नेस एडीटर की मान्यता और सम्मान हर पत्र में बढ़ा है। उन्हें बेहद सम्मान के साथ देखा जा रहा है। पत्र की व्यावसायिक गतिविधियों में भी उन्हें सहयोगी के रूप में स्वीकारा जा रहा है। समाचार पत्रों में जिस तरह पूँजी की आवश्यकता बढ़ी है, आर्थिक पत्रकारिता का प्रभाव भी बढ़ रहा है। व्यापारी वर्ग में ही नहीं समाज जीवन में आर्थिक मुद्दों पर जागरूकता बढ़ी है। खासकर शेयर मार्केट तथा निवेश संबंधी जानकारियों को लेकर लोगों में एक खास उत्सुकता रहती है।
ऐसे में हिन्दी क्षेत्र में आर्थिक पत्रकारिता की जिम्मेदारी बहुत बढ़ जाती है, उसे न सिर्फ व्यापारिक नजरिए को पेश करना है, बल्कि विशाल उपभोक्ता वर्ग में भी चेतना जगानी है। उनके सामने बाजार के संदर्भों की सूचनाएँ सही रूप में प्रस्तुत करने की चुनौती है ताकि उपभोक्ता और व्यापारी वर्ग तमाम प्रलोभनों और आकर्षणों के बीच सही चुनाव कर सकें। आर्थिक पत्रकारिता का एक सिरा सत्ता, प्रशासन और उत्पादक से जुड़ा है तो दूसरा विक्रेता और ग्राहक से। ऐसे में आर्थिक पत्रकारिता की जिम्मेदारी तथा दायरा बहुत बढ़ गया है। हिन्दी क्षेत्र में एक स्वस्थ औद्योगिक वातावरण, व्यावसायिक विमर्श, प्रकाशनिक सहकार और उपभोक्ता जागृति का माहौल बने तभी उसकी सार्थकता है। हिन्दी ज्ञान विज्ञान के हर अनुशासन के साथ व्यापार, वाणिज्य और कारर्पोरेट की भी भाषा बने। यह चुनौती आर्थिक क्षेत्र के पत्रकारों और चिंतकों को स्वीकारनी होगी। इससे भी भाषायी आर्थिक पत्रकारिता को मान–सम्मान और व्यापक पाठकीय समर्थन मिलेगा।
संजय द्विवेदी
(प्रवक्ता.काम से साभार)
उपयोगी शब्दार्थ
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वैश्वीकरण m
दौर m माया f महाठगिनी f अहमियत f आर्थिक पत्रकारिता f चेतना f आर्थिक गतिविधि f उदासीनता f आर्थिक संदर्भ m समुदाय m व्यावसायिक गतिविधि f परंपरागत व्यवसाय m आर्थिक मुद्दा m ग्रहण m निर्भरता f पाठकीयता f प्रेरणा f अंतराल m अनिवार्यतः उपलब्ध इफरात सामग्री f दयनीय स्थिति f वाणिज्य समाचार m पिछलग्गू m/f मानसिकता f प्रलोभन m औद्योगिक वातावरण m व्यावसायिक विमर्श m प्रकाशनिक सहकार m उपभोक्ता जागृति f माहौल m सार्थकता f |
globalization
phase money a big thug importance economic journalism consciousness economic activity indifference economic context group commercial activity traditional business economic issue eclipse dependence readership inspiration interval necessarily available abundant materials pitiable situation business news hanger-on mentality temptation industrial environment business discussion publishing cooperation consumer awakening environment meaningfulness |
Linguistic and Cultural Notes
1. Hindi has a system of reduplicating nouns. The first type is echo constructions where nouns are repeated with their first syllable replaced by the sound व. One example from this unit is भाव–ताव but this is possible with almost any noun चाय–वाय, किताब–विताब. Such reduplicated forms are usually used in informal contexts and the echo word gives the sense of ‘etcetera’. The second type is where a noun is accompanied by another semantically related noun, for example – देश–परदेश (or its variant देस–परदेस), पेड़–पौधे, कलम–किताब, etc. While the former type is quite productive the latter type is restricted to conventionalized reduplicated forms.
2. India’s new economic environment, has considerably increased the demand and supply of media in Hindi and other regional languages. In spite of the prominence of English in India, more than 90% of its people are not proficient in the language.
Language Development
The two following vocabulary categories are designed for you to enlarge and strengthen your vocabulary. Extensive vocabulary knowledge sharpens all three modes of communication, With the help of dictionaries, the internet and other resources to which you have access, explore the meanings and contextual uses of as many words as you can in order to understand their many connotations.
Semantically Related Words
Here are words with similar meanings but not often with the same connotation.
वैश्वीकरण
माया अहमियत समुदाय वाणिज्य प्रलोभन माहौल |
भूमण्डलीकरण
धन-दौलत महत्व, महत्ता समूह व्यापार, व्यवसाय लालच वातावरण |
Structurally Related Words (Derivatives)
ठग, ठगिनी, महाठगिनी
अहम, अहमियत
उदासीन, उदासीनता
परंपरा, परंपरागत, पारंपरिक
निर्भर, निर्भरता
पाठक, पाठकीयता
प्रेरणा, प्रेरणाप्रद, प्रेरणादायक, प्रेरित
अनिवार्य, अनिवार्यता, अनिवार्यतः
दया, दयनीय, दयालु, दयावान, निर्दय, निर्दयी
लोभ, प्रलोभन
विक्रय, विक्रेता, बिक्री
उद्योग, उद्योगपति, औद्योगिक, औद्योगिकीकरण, प्रौद्योगिकी
प्रकाशन, प्रकाशक, प्रकाशनिक
अर्थ, सार्थक, सार्थकता, निरर्थकता
Comprehension Questions
1.What is the central theme of the author?
a. Rise of Indian languages in the economic world is essential.
b. English’s status is irreversidble and should be accepted.
c. Economic journalism in local languages is not getting anywhere.
d. Economic journalism is important for national development.
2. Based on the article, traditionally an economic revolution in India suffered due to
a. indifference to economic matters
b. dominance of English journalism
c. late arrival of globalization ideas
d. lack of information distribution
Supplementary Materials Module 11
Reading
1.भूमंडलीकरण ,उदारीकरण ,वैश्वीकरण बनाम सांस्कृतिक संघर्ष
http://haridhari.blogspot.in/2013/05/blog-post_15.html
2.सामाजिक पहल से खुला विकास का रास्ता- बाबा मायारामhttp://hindi.indiawaterportal.org/content/
3.विकास, भूमंडलीकरण और दृश्यों का मायालोक
जगदीश्वर चतुर्वेदी
http://jagadishwarchaturvedi.blogspot.in/2009/08/blog-post_14.html
4.देशी अर्थ शास्त्र भी देखना चाहिए
http://deepakraj.wordpress.com/2010/01/10/indian-economics-hindi-article/
5.भारतीय संदर्भ में आर्थिक विकास और सामाजिक दायित्व स्रोत : http://www.deendayalupadhyaya.org/leacture4_hi.html
पं .दीनदयाल उपाध्याय
6.भारत का आर्थिक इतिहास -विकीपीडिया से
http://hi.wikipedia.org/wiki
7. हिंदी की आर्थिक पत्रकारिता
http://www.pravakta.com/economic-journalism-in-hindi-struggle-to-identify-sanjay-dwivedi
8.बाज़ार पहले आपको खरीदता है, फिर नीलाम कर देता है…
9.नव उदारवादी पूंजीवाद–बाज़ारवाद की व्यवस्थागत बीमारी का नतीजा है यह वैश्विक आर्थिक संकट
http://kaushalsoch.blogspot.com/2009/05/blog-post_0
सुनील
http://zsanchar.org
11. खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी: विकास को या विनाश को न्यौता?
दुनिया भर के अनुभवों से साफ़ है कि खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी को इजाजत देने से फायदे कम हैं और नुकसान ज्यादा
http://teesraraasta.blogspot.com/2012/08/blog-post_11.html
12.जब किसी व्यक्ति की आय सीमा पार कर जाती है
http://www.moneymantra.net.in/detailsPage.php?id=5720&title=&page=cs
13.खुदरा क्षेत्र के लिए राष्ट्रीय व्यापार नीति बनाए जाने की जरूरत
http://hindi.business-standard.com/storypage.php?autono=85444
Listening
1.अन्नदाता-जैविक तरीक़े से फसल को कीट से ऐसे बचाएँ
https://www.youtube.com/watch?v=AvktbtaACH0
2.बायोगैस सयंत्र-झाबुआ
https://www.youtube.com/watch?v=lk7hCu2sTCs
3.Globalization
https://www.youtube.com/watch?v=3oTLyPPrZE4
4.India & Globalisation
https://www.youtube.com/watch?v=i_ntVgNP604
5.Globalisation and the Indian Economy 001
https://www.youtube.com/watch?v=QhJm9XBNpVw
Published on Mar 6, 2012
6.Globalisation and the Indian Economy 003
https://www.youtube.com/watch?v=uHfB5lHYJyA
7.Globalization and International Trade
https://www.youtube.com/watch?v=KtY9stUJ8L4
8.How Devaluation of RUPEE Against Dollar leads to collapse BHAR
http://www.youtube.com/watch?v=LCYoq8lVkzA
Uploaded on Nov 21, 2011
PLZ PLZ plz watch this video and know How Devaluation of RUPEE Against Dollar Gave Loss of Rs 245 Lakh Crore in one year.
Discussion Ideas Module 11
1. Debate the role of Hindi and other Indian languages in Indian business. Is English sufficient?
2. There is concern that small local retailers will be displaced if Indian consumer markets are further opened to foreign firms. Discuss how the Indian consumer and labor markets might evolve if Indian consumer markets were more open.
3. With all this wealth coming to India, the wealthy are becoming richer, but a majority of people in India have experienced little change. 40% of the world’s underweight children under 5 years of age reside in India. What is the responsibility of the newly wealthy India towards the progress of the entire nation, not just the educated and wealthy classes?
4. As times change and international influences become more evident in India, how do you anticipate the role of local languages such as Hindi? Do you think that the role of local languages will grow or further diminish?
5. Find an article in a Hindi-language publication on the impact of India’s development on traditional communities and summarize its arguments.
6. Several non-profits have been founded over the years to help traditional artisans keep their crafts financially viable. Research such an organization and present its work. Do you think it is really effective?