Economic Progress and Social Responsibility
Module 11.2
परंपरागत चिंतन – 2
आर्थिक विकास और सामाजिक दायित्व
हमारे आर्थिक ढाँचे की क्या प्रकृति अथवा व्यवस्था हो, हमें इसे देखना लाज़मी है। हमारी आर्थिक व्यवस्था उस तरह की हो जिसमें हमारी संस्कृति, मानवीय गुण तथा राष्ट्रीय धरोहर पुष्पित एवं पल्लवित हो और उसमें निरंतर विकास होता रहे। हमें अपनी बुराइयाँ तथा कुरीतियाँ त्याग कर ऊँचाइयों पर पहुंचाना ही हमारी व्यवस्था का उद्देश्य है। हमारी धारणा है कि मानवीय गुणों के निरंतर विकास की प्रक्रिया से ही संपूर्णता और भगवान् तक पहुंचा जा सकता है। यदि हमें इस लक्ष्य तक पहुंचना है तो हमारी आर्थिक प्रणाली का ढाँचा तथा विनियम कैसे होना चाहिए,अब जरा इस बात पर विचार करेंगे।
देश के विकास और देशवासियों की दैनिक वस्तुओं की संपूर्ति के लिए और उत्पादन-वृद्धि के लिए आर्थिक प्रणाली का महत्वपूर्ण योगदान है जिसे हर स्थिति में पूरी करने का उद्देश्य लेकर इस व्यवस्था को नए कीर्तिमान स्थापित करने चाहिए।
मूलभूत आवश्यकताओं की संपूर्ति के उपरांत अधिक समृद्धि और विकास के लिए क्या और अधिक उत्पादन किया जाना चाहिए। यह प्रश्न बार-बार उठता है और हम पाते हैं कि पाश्चात्य समाज इस बात को काफी आवश्यक समझता है कि अधिक से अधिक इच्छाएं जीवन में हों और उन इच्छाओं की पूर्ति के लिए हर संभव प्रयास किए जाएं। सामान्यतया होता यही है कि इच्छा के अनुरूप ही व्यक्ति उत्पादन करता है। लेकिन स्थिति अब बदल चुकी है। लोग अब उत्पादन के अनुरूप उसका प्रयोग करते हैं।
मांग के अनुरूप उसका उत्पादन करने के बजाए तो बाजार अनुसंधान के जरिए मांग की सृजन के लिए प्रयास किया जाता हैं। पहले उत्पादन माँग के अनुसार होता था जबकि आज माँग उत्पादन के अनुसार है। यही पाश्चात्य आर्थिक आंदोलन की प्रमुख पहचान है । चाय का ही हम उदाहरण लें। चाय का उत्पादन इसलिए है क्योंकि लोग चाहते हैं और उसे मांगते हैं। अब उसका उत्पादन बृहत स्तर पर है और लोगों के वह मुँह लग चुकी है और सामान्य उपयोग की वस्तु बन गई है। इतना ही नहीं आज वह हमारे जीवन का अंग बन गयी है। इसी तरह वनस्पति घी का उदाहरण लें तो हम पाएंगे कि कोई भी इसे प्रयोग में नहीं लाना चाहता था। पहले इसका उत्पादन हुआ और फिर हमें बताया गया कि इसका प्रयोग करें। यदि उत्पादित माल का उपयोग नहीं किया गया तो स्वाभाविक रूप से उसमें संकुचन हुआ।
यह आवश्यक है कि प्राकृतिक संसाधनों का हम उतना ही दोहन करें जिसके लिए वे सक्षम हों। फलों की प्राप्ति के लिए पेड़ों को तहस-नहस नहीं किया जाता क्योंकि इससे उन पर असर तो होगा ही। लेकिन अमेरिका में अधिक उत्पादन के लिए जिन रसायनों का प्रयोग वहाँ की जमीन पर हुआ था, वह आज उपज-योग्य नहीं रही। लाखों एकड़ ऐसी भूमि आज अमेरिका में है जिस पर खेती नहीं हो सकती। यह विनाश कब तक चलेगा?
इस तरह का मानवीय दृष्टिकोण आर्थिक प्रणाली को प्रेरित करता है जिससे हमारे चिंतन में आर्थिक प्रश्न नए रूप ले लेंगे। पश्चिमी अर्थशास्त्र में चाहे वह पूंजीवादी व्यवस्था हो अथवा सामाजिक, मूल्य की स्थिति अत्यंत महत्वपूर्ण है। सभी आर्थिक विषयवस्तुओं का केन्द्रबिन्दु मूल्य पर आधारित है। मूल्य का विश्लेषण अर्थशास्त्रियों के दृष्टिकोण से काफी महत्वपूर्ण है। लेकिन सामाजिक दार्शनिक जो मूल्य पर ही आधारित हो उसे अपूर्ण, अमानवीय तथा कुछ हद तक तथ्यहीन मानते हैं। उदाहरण के लिए एक नारा जो हमेशा ही प्रयोग में लाया जाता रहा है, वह है कि ”प्रत्येक व्यक्ति को अपने लिए रोटी कमानी है।” सामान्यतया कम्युनिस्ट इस नारे का प्रयोग करते हैं लेकिन पूंजीवादी भी इसे अस्वीकार नहीं करते। यदि उनके बीच में कोई मतभेद है, वह केवल इतना ही है कि कोई कितना कमाता है और कितना जमा करता है। पूंजीवादी यह मानते हैं कि पूंजी और उद्यम दोनों ही पूंजीगत व्यवस्था के अनिवार्य घटक हैं और यदि ये लाभ के प्रमुख अंश प्राप्त करते हैं तो वे इसे इनकी योग्यता का मापदण्ड मानते हैं। दूसरी ओर कम्युनिस्ट केवल श्रम को ही उत्पादन का प्रमुख उपादान मानते हैं। इन दोनों में से कोई भी विचार उपयुक्त नहीं है। वास्तविक रूप से हमारा नारा यह होना चाहिए कि जो कमायेगा वह खिलाएगा और हर एक के पास खाने के लिए पर्याप्त होगा। भोजन की प्राप्ति तो जन्मसिद्ध अधिकार है। कमाने की योग्यता शिक्षा और प्रशिक्षण है। समाज में जो कमाता नहीं है उसे भी भोजन का अधिकार है। बच्चे और बूढ़े, बीमार तथा अपाहिज सभी कमाते तो नहीं है लेकिन खाने के अधिकारी हैं। आर्थिक प्रणाली इस कार्य के लिए मुहैया करवाई जानी चाहिए। विज्ञान के रूप में अर्थशास्त्र इस उत्तरदायित्व के लिए उत्तरदायी नहीं है। एक आदमी केवल रोटी के लिए ही नहीं कमाता, वह अपने उत्तरदायित्व के निर्वाह के लिए भी कमाता है। अन्यथा जिनके पास खाने की व्यवस्था है वे काम क्यों करेंगे?
किसी भी आर्थिक प्रणाली को व्यक्ति की आवश्यक आवश्यकताओं को पूर्ण करने की व्यवस्था करनी ही चाहिए। रोटी, कपड़ा और मकान जैसी आवश्यकताएँ हर व्यक्ति के लिए आवश्यक हैं। समाज के दायित्व को निर्वाह करने के लिए शिक्षा भी बेहद आवश्यक है। अंत में यदि कोई व्यक्ति बीमार पड़ता है तो उसके विधिवत् इलाज तथा देखरेख का दायित्व समाज का है। यदि कोई सरकार इन न्यूनतम आवश्यकताओं को पूर्ण करती है तो उसे हम धर्म का राज कहेंगे अन्यथा उसे अधर्म राज्य कहा जाएगा। राजा दिलीप का वर्णन करते हुए कालिदास ने रघुवंश में कहा है कि वे ”अपनी प्रजाजनों की देखरेख एक पिता की तरह करते थे और उनकी रक्षा और शिक्षा के पूरे दायित्व का निर्वाह करते थे”। राजा भरत जिनके नाम से इस देश का नाम भारत पड़ा था, वे भी अपनी प्रजा की ”देखरेख, लालन-पालन और उनकी रक्षा पिता की तरह करते थे”। यह उन्हीं का देश भारत है। यदि आज उनके इस देश में प्रजा की देखरेख और रक्षण जो प्रजाजनों के लिए अत्यन्त आवश्यक है, नहीं किया जाता तो भारत का कोई अर्थ नहीं रह जाता।
पंडित दीनदयाल उपाध्याय
उपयोगी शब्दार्थ
( shabdkosh.com is a link for an onine H-E and E-H dictionary for additional help)
लाज़मी
मानवीय गुण m राष्ट्रीय धरोहर f पुष्पित पल्लवित कुरीति f धारणा f संपूर्णता f विनियम m दैनिक संपूर्ति f आर्थिक प्रणाली f कीर्तिमान m वनस्पति घी m संकुचन m प्राकृतिक संसाधन m दोहन m सक्षम रसायन m उपज-योग्य मानवीय दृष्टिकोण m पूंजीवादी व्यवस्था f विषयवस्तु केन्द्रबिन्दु अमानवीय तथ्यहीन सामान्यतया घटक मापदंड उपादान उपयुक्त विज्ञान अर्थशास्त्र उत्तरदायित्व उत्तरदायी निर्वाह अन्यथा दायित्व विधिवत् न्यूनतम |
compulsory
human quality (ies) national heritage flowered blossomed bad manner idea, concept completeness, totality regulation daily supply economic system record vegetable ghee/oil constriction natural resource milking capable chemical befitting for a crop/production human view point capitalist system subject matter focal point inhuman devoid of facts ordinarily factor scale material cause, raw material appropriate science economics responsibility responsible subsistence, maintenance otherwise responsibility according to rules minimum |
Linguistic and Cultural Notes
1. In terms of language use, Hindi definitely surpasses English in informal oral discussions and in overall readership of newspapers. Its use is also growing in some formal domains such as business newspapers and business communications in smaller cities where English is not as dominant as it is in big cities.
2. Pandit Deendayal Upadhyay was a political activist known for his philosophical ideas in economics. He was a founding member and leader of the Jan Sangh, a forerunner of the Bhartiya Janata Party.
Language Development
The two following vocabulary categories are designed for you to enlarge and strengthen your vocabulary. Extensive vocabulary knowledge sharpens all three modes of communication, With the help of dictionaries, the internet and other resources to which you have access, explore the meanings and contextual uses of as many words as you can in order to understand their many connotations.
Semantically Related Words
Here are words with similar meanings but not often with the same connotation.
लाज़मी
धरोहर विनियम दैनिक संपूर्ति कीर्तिमान सक्षम सामान्यतया उपयुक्त उत्तरदायित्व उत्तरदायी |
अनिवार्य
विरासत अधिनियम रोज़ाना, हर रोज़, प्रतिदिन आपूर्ति रिकार्ड समर्थ सामान्यतः, आम तौर पर उचित दायित्व, ज़िम्मेवारी, ज़िम्मेदारी ज़िम्मेवार, ज़िम्मेदार |
Structurally Related Words (Derivatives)
मानव, मानवीय, मानवता, अमानवीय
राष्ट्र, राष्ट्रीय, राष्ट्रीयता, अंतर्राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीयता अंतरराष्ट्रीय, बहुराष्ट्रीय, अन्तरराष्ट्रीयता
पुष्प, पुष्पित
पल्लव, पल्लवित
रीति, कुरीति
धारणा, अवधारणा
पूर्ण, पूर्णता, संपूर्ण, संपूर्णता
नियम, नियमित, नियामक, अधिनियम, विनियम
दिन, प्रतिदिन, दिन-ब-दिन, दिन प्रतिदिन, दिनोंदिन, दैनिक
पूर्ति, आपूर्ति, संपूर्ति
संकोच, संकुचन
रस, रसिक, रसायन, रसायनिक, रासायनिक
विधि, विधिवत्, वैध, अवैध
Comprehension Questions
1. What is the theme of this article?
a. spirituality as the basis of economics
b. nationalism in the center of all thinking
c. Indian thinking based on Indian scriptures
d. fusion between Indian and Western thought
2. What is author’s tone about Western thinking in the area of economics?
a. complimentary
b. disapproving
c. hard-hearted
d. mocking