Meaning of Marketing
Module 11.3
परंपरागत चिंतन – 3
बाज़ारवाद का मतलब
पहले हमें धर्म नियंत्रित करता था । उस धर्म में भले ही पांखड, तर्करहित-पाबंदियाँ, अतीन्द्रिय चेतना और मूढ़ता भी थीं किन्तु कुछ मूल्य, कुछ भय और कुछ परलोकीय शुचिता की आंतरिक आकांक्षाएं भी थीं । शायद इसलिए मन और मनीषा दोनों की ज़मीन को आत्मा का ठोस आसमान घनी छाँह दिया करता था । धर्मच्युतिकरण के साथ-साथ आत्मा की छाँहें छिजती चली गयीं और प्रचंड ग्रीष्मता और उष्णता का मारा देह का सांड चारों तरफ़ हुंकड़ने लगा । पश्चिमी दर्शन की समीपता, वैज्ञानिक समझ और आधुनिकता के दबाब से देह की ख़ुराक़ को जैसे जीवन का ध्येय माना जाने लगा । इसमें समूची 20 वीं सदी को अपने घेरे में लेने वाली मार्क्सवादी सोच की व्यापक अनुरक्ति भी सम्मिलित है, जहाँ केवल वर्तमान की सुचिंताएँ तो हैं किन्तु वहाँ भविष्य का सौंदर्य़ बिलकुल नदारद है जिसके भय से कम-से-कम भारतीय जीवन शैली स्वयं आत्मशोधित और आत्मनिंयत्रित हुआ करती थी । प्रकारांतर से कह सकते हैं कि अर्थ, काम, धर्म और मोक्ष चारों के प्रति सम्यक विश्वास ही भारतीय पुरुषार्थ को नियमित और नियंत्रित किया करता था । तब तक, जब तक हम आत्मा के दीये से रोशनी लेते रहे, देह यानी अर्थ और काम, धर्म और मोक्ष के साथ बैंलेसिंग पोजिशन में थे किन्तु जैसे ही पुरुषार्थ के अन्य घटकों को कुचलते हुए अर्थ और काम केंद्र में आ गये जीवन का सारा भूगोल, सारी दिशाएँ, सारे कोण गड्डमड्ड हो गये । ज़ाहिर है जीवन और समाज को अर्थ का अधिनायकवादी शास्त्र और सच्चे अर्थों में शस्त्र चारों तरफ़ से घेरने लगा । इस अधिनायकत्व के लक्ष्यों की पूर्ति में उत्पादन, उपभोग, विनिमय और वितरण की प्रक्रियायें साथ-साथ न चलकर तितर-बितर कर दी गयीं। ऐसे में इन कुलक्ष्यों का सर्वोच्च साधन बाज़ार ही बना ।
जी हाँ, भारत के प्राचीन काल से लेकर बीसवीं सदी के आठवें दशक तक का वही बाज़ार जिसका मतलब साप्ताहिक हाट, मेला, चौक-चौराहों में संचालित दुकानदारी तक सीमित रहा । यानी दिन-प्रतिदिन की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए अंतराल पर लोगों की ख़रीदारी और बिक्रय । क्रय-बिक्रय का यह जो अंतराल था, वह भी अन्य पुरुषार्थों के लिए सम्मानजनक स्पेस देता था । तब बाज़ार कुरूप नहीं था । वह ऐसी जगह था जहाँ कबीर जैसा दार्शनिक भी खड़े होकर समाज का आह्वान कर सकता था । आज बाज़ार के ख़ूनी पंजों के निशान जीवन में सर्वत्र देखे पहचाने जा सकते हैं । वहाँ मनुष्य के हर कर्म में बाज़ार का हस्तक्षेप है, आंतक है ।
यह बाज़ार तब सिर चढ़कर बोलने लगा जब बीसवीं सदी के अंतिम दो दशकों से भूमंडलीकरण की वैश्विक प्रक्रिया शुरू हुई, जो निरंतर सुरसा की तरह मुँह विस्तारित करती जा रही है, जिसमें भूमंडलीकरण का असली निहितार्थ भूमंडीकरण है। यह एक ऐसा षडयंत्र है, जहाँ बाज़ार के विश्वव्यापीकरण और विश्व के बाज़ारीकरण के अलावा कुछ भी ऐसा नहीं हो रहा है जिस पर मानवजाति विश्वास जता सके । इस मंडी में सब कुछ बिकाऊ है । यहाँ तक कि तन-मन और संपूर्ण जीवन भी । आज के बाज़ार की पहुँच और उसके बरक्स मानवीय विडम्बनाओं की चरम सीमा साफ़-साफ़ देखी जा सकती है। अब बाज़ार का विस्तार घर के आंगन और बेडरुम तक हो गया है जिसमें इलेक्ट्रॉनिक संचार माध्यमों का काफ़ी योगदान है । अब बाज़ार केन्द्र में है और मनुष्य और समाज परिधि में हैं ।
आज का भारतीय समाज उत्पादक कम और उपभोक्ता ज़्यादा हो गया है । विश्व व्यापार संगठन के निर्णयों को मानें तो किसानों को अनुदान नहीं दिया जाना चाहिए क्योंकि इससे बाज़ार विद्रूप होता है यानी स्वस्थ प्रतिस्पर्धा नहीं होती । किन्तु ठीक दूसरी ओर टाटा और सलीम समूह जैसे औद्यौगिक घरानों की सुविधा एवं मुनाफ़े के लिए पश्चिम बंगाल में फूलों की ‘सेज’ ( स्पेशल इकोनॉमिक जोन) सजाई जाती है, जिसके लिए छोटे-छोटे किसानों की पुश्तैनी ज़मीन औने-पौने दाम देकर ‘लोक उद्देश्य’ के नाम पर भू अर्जन अधिनियम (1894) के तहत ख़रीद नहीं हड़प ली जाती है । किसानों की सहमति के बिना । बाज़ार असहमत लोगों को अपने रास्ते से हटा देता है । उसे सिर्फ़ सहमति चाहिए । जब सिंगूर और नन्दीग्राम के भोले-भाले किसान इसका विरोध करते हैं तो उन्हें बन्दूक की गोलियाँ और लाठियाँ खानी पड़ती हैं । (चौदह लोग नंदीग्राम में मारे गये) इसी प्रकार दादरी (उ.प्र.) के किसानों से रिलायन्स समूह के लिए राज्य सरकार द्वारा जबर्दस्ती ज़मीन छीन ली जाती है ।
आज की वास्तविकता तो यही है कि विकसित देशों का पिछलग्गू बनते हुए और अपनी स्वस्थ और संपुष्ट मिश्रित अर्थव्यवस्था से पिंड छुड़ाते हुए ग्रामों का भारत भी ‘उपभोक्ता समाज’ बन गया है । उपभोक्ता समाज की ख़ासियत यह है कि यह उत्पादन की जगह उपभोग को ज़्यादा महत्व देता है । उपभोग का आधिक्य जंगल की प्रवृत्ति है जहाँ कभी भी किसी की हत्या करने से बलशाली पशु चूकना नहीं चाहता।
पिछले दो दशकों में भारत जैसे विकासशील देशों में भी टी.वी., सिनेमा, अखबार, पैम्फलेट, वीडियो आदि संचार माध्यमों द्वारा प्रचारित-प्रसारित विज्ञापनों से ख़रीदारी की प्रवृत्ति बढ़ी है । लोग जो कुछ देखते-सुनते या पढ़ते हैं, उन्हें ख़रीदने का मन धीरे-धीरे बना लेते हैं । यह बाज़ार का मनोवैज्ञानिक और धीमा ज़हर है जिसे बाँटकर मनुष्य को सिर्फ़ क्रेता बनाया जा रहा है । इसके पीछे निजी आय में हो रही वृद्धि को भी शुमार कर सकते हैं – भारत में मध्यम वर्ग का दायरा काफ़ी बढ़ा है, लगभग 35 करोड़ तक । दूसरा कारण अधिक से अधिक चीज़ें खाने या रखने की प्रवृत्ति भी बढ़ी है और लोग विलासिता की सुविधाओं के आदी हो गये हैं। जीवन का लक्ष्य जैसे एकत्रीकरण हो गया हो । बाज़ार ने परिग्रहवादी भारतीय मन को संग्रहवाद का शिकार बनाने मे कोई कोताही नहीं की है । तीसरा कारण विभिन्न बैंकों तथा अन्य वित्तीय संस्थाओं द्वारा ज़्यादा सरलता उदारता से ऋण उपलब्ध कराने की नीति भी है । सो यदि ज़्यादा आय न भी हो तो अपनी या घर के अन्य सदस्यों की इच्छा की पूर्ति के लिए लोग ऋण लेने में नहीं चूकते। किन्तु निम्न मध्यमवर्ग की हालत इसके ठीक विपरीत है । उसके लिए तो ठीक से राशनिंग भी उपलब्ध नहीं है । कई राज्यों में करोड़ों जनता को प्रतिमाह 2 या 3 रूपये की दर से 35 किलो चावल देने की योजना का एक निहितार्थ यह भी है कि उनकी क्रय शक्ति जस के तस है । वे ठीक से दो जून की रोटी भी जुटा पाने में असमर्थ हैं । वह भी आज़ादी के कई दशकों बाद ।
उपभोक्तावादी संस्कृति में अधिक मात्रा में संग्रहण, भव्यता (शान-शौकत) दुर्लभता (दुर्लभ वस्तुओं को प्राप्त करने की आकांक्षा), वृहदाकार का सौन्दर्य, दिखावापन, प्रतिद्वन्द्विता, झूठी हैसियत और प्रतिष्ठा जैसी विशेषताएँ खोखली हैं । यहाँ ‘ख़ुशनुमा अहसास’ (बिना बेहतर हुए बेहतरी का अहसास-फील गुड़ः की प्रबलता होती है, जो दुचित्तेपन और और द्विखंडित व्यक्तित्व का प्रतीक है, जो नये ज़माने की प्रतिस्पर्धा, मुक्त बाज़ारवाद, लालच की मानसिकता से पैदा होती है, जिससे पर्यावरणीय ख़तरे पैदा हो रहे हैं । दुनिया के 43 देशों ने उपभोक्तावादी संस्कृति और तद्जनित पर्यावरणीय ख़तरों को महसूस किया है और आत्मनिर्णय लिया है कि वे जी.एम. बीजों और उत्पादों का उपयोग नहीं करेंगे । क्योंकि वैश्वीकरण के तीनों मूल सिद्धान्त (जेम्स गालब्रेथ के शब्दों में) धराशायी हो चुके हैः सभी सफलताएँ वैश्विक होती हैः सभी असफलताएँ राष्ट्रीय होती हैः बाज़ार को तो दोष नहीं दिया जा सकता।
निजीकरण वैश्वीकरण की सह-प्रक्रिया है, जिसमें प्राकृतिक संसाधनों, सिंचाई संसाधनों तथा उद्योगों का निजी स्वामित्व आदि शामिल है । इसमें सामूहिक सहभागिता (जन सामान्य की ) और सार्वजनिक दायित्व (सरकार का) का लोप हो जाता है । निजीकरण और वैश्वीकरण के अद्यतन शिल्प को देखें तो यह साफ़-साफ़ दिखाई देता है कि दोनों एक दूसरे को संबोधित और संवर्धित करते हैं । ज़ाहिर है यहाँ जन सामान्य की आकांक्षाओं और स्वप्नों की चिंताओं के लिए कोई जगह नहीं । ऐसे में निजीकरण औऱ वैश्वीकरण सहअस्तित्व या सहकारिता का विरुद्धार्थी बन जाते हैं । इसलिए अपभोक्तावादी संस्कृति में न्यूनतम आवश्यकता के ऊपर असीमित इच्छाएँ हावी होने से किसी को कभी संतोष नहीं होता- गोधन, गजधन, बाजिधन और रतन-धन को प्राथमिकता दी जाती है, सन्तोष-धन को नहीं । इस सन्दर्भ में महात्मा गाँधी की यह उक्ति काफ़ी प्रासंगिक हैः ‘धरती के पास प्रत्येक व्यक्ति की जरूरत पूरा करने वाली हर चीज़ मौजूद है, मगर किसी के लालच को वह पूरा नहीं कर सकती।’
– जयप्रकाश मानस
उपयोगी शब्दार्थ
( shabdkosh.com is a link for an onine H-E and E-H dictionary for additional help)
नियंत्रित करना
पाबंदी f अतीन्द्रिय चेतना f मूढता f शुचिता f मनीषा f धर्मच्युतिकरण आत्म-शोधित आत्म-नियंत्रित अधिनायकवादी शास्त्र m अधिनायकत्व m अंतराल m हस्तक्षेप m भूमण्डलीकरण m वैश्विक प्रक्रिया f निहितार्थ m के बरक्स विडम्बना f परिधि f अनुदान m प्रतिस्पर्धा f अधिनियम m पिछलग्गू m/f उपभोक्ता m/f मनोवैज्ञानिक परिग्रहवादी मध्यमवर्ग m निजीकरण m सहअस्तित्व m |
to control
restriction meta-sensual consciousness stupidity purity, honesty wisdom deviating from the path of righteousness self-purified self-controlled dictatorial field of study dictatorship interval intervention globalization global process implication, implied meaning in contrast to, against irony circumference grant (money), funding competition act, statute blind follower consumer psychological acquisitionist middle class privatization co-existence |
Linguistic and Cultural Notes
1. विक्रय and बिक्रय are regional variants. The standard form as found in Hindi dictionaries is the former one. The sound ब replaces व in many words, more in speech than in writing, as we move to the eastern part of the Hindi belt, especially in eastern Uttar Pradesh, Bihar and also in the Bengali region.
2. Classical terms like पुरुषार्थ, धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष need to be understood in their intended sense. According to classical Hindu thought, there are four goals (पुरुषार्थ) of human life – righteousness (धर्म), material prosperity (अर्थ), desires (काम), and spiritual liberation (मोक्ष).
3. Consumerism is the new cultural order of the day where products are marketed in effective ways to attract customers. In terms of economics, consumerism is closely connected to the local standard of living and the GDP of the nation. Consumerism implies a demand for goods resulting from the mass production of goods and the ensuing marketing strategies. The Indian middle class became significant in size after the liberalization policies in 1991 and that’s where increasing consumerism has been visible in recent years.
Language Development
The two following vocabulary categories are designed for you to enlarge and strengthen your vocabulary. Extensive vocabulary knowledge sharpens all three modes of communication, With the help of dictionaries, the internet and other resources to which you have access, explore the meanings and contextual uses of as many words as you can in order to understand their many connotations.
Semantically Related Words
Here are words with similar meanings but not often with the same connotation.
नियंत्रित करना
पाबंदी मूढता शुचिता मनीषा अधिनायकवादी हस्तक्षेप भूमण्डलीकरण प्रतिस्पर्धा |
काबू करना
रोक मूर्खता सफ़ाई, ईमानदारी इच्छा तानाशाही दख़लन्दाज़ी वैश्वीकरण स्पर्धा, प्रतिद्वन्द्विता, प्रतियोगिता, मुकाबला |
नियंत्रित करना काबू करना
पाबंदी रोक
मूढता मूर्खता
शुचिता सफ़ाई, ईमानदारी
मनीषा इच्छा
अधिनायकवादी तानाशाही
हस्तक्षेप दख़लन्दाज़ी
भूमण्डलीकरण वैश्वीकरण
प्रतिस्पर्धा स्पर्धा, प्रतिद्वन्द्विता, प्रतियोगिता, मुकाबला
Structurally Related Words (Derivatives)
नियंत्रण, नियंत्रित, नियंत्रक
पाबंद, पाबंदी
इन्द्रिय, अतीन्द्रिय
चेतन, चेतना, चित्, चित्त
मूढ, मूढता
शुचि, शुचिता
नायक, अधिनायक, अधिनायकवादी, अधिनायकत्व
भूमण्डल, भूमण्डलीकरण
निहित, निहितार्थ
दान, अनुदान, आदान, प्रदान, आदान-प्रदान
स्पर्धा, प्रतिस्पर्धा , प्रतिस्पर्धात्मक
पीछे, पिछलग्गू
मनोविज्ञान, मनोवैज्ञानिक
ग्रहण, अधिग्रहण, परिग्रहण, परिग्रह, अपरिग्रह, परिग्रहवादी
निज, निजी, निजीकरण
अस्तित्व, सहअस्तित्व
Comprehension Questions
1.What is at the center stage of this author’s thinking?
a. Globalization is eroding all local traditions and settings.
b. Economics without ethics is the root of unhappiness.
c. Consumerism is happiness of humans.
d. Unlimited desires are corroding a balanced view of life.
2. What would be an ideal state according to the author?
a. When religion is combined with our economic thinking.
b. When India’s traditional thinking is combined with global thinking.
c. When the local environment is given its due over globalization.
d. When collective happiness is favored over individual happiness.